Thursday, June 5, 2014

आज़ाद शहर

इस शहर में भीड़ बहुत है।

इधर उधर घूमते फिरते जाने कितने लोग
यूँही मील जाते है, दौड़ते भागते,
मानो खुदसे ही आगे निकलने की कोशिश में हो
पर फिरभी कभी सुबह की दौड़ के लिए
कोई साथ चाहिए तो साथ नहीं मिलता

बड़ी बड़ी इमारतों में बसते लोग
मानो कई कसबे, कुछ ग़ाव, दो चार मोहल्ले
जोड़ दिए हो साथ में
मगर जाने क्यों यहाँ कोई वक़्त बेवक़्त
यूँही दरवाज़ा खटखटाकर चीनी नहीं मांगता

जब चलते हुए सड़क पर ठेस लग जाती है,
कोई यहाँ हाथ पकड़ कर सड़क किनारे
पेड़ की छाव में बिठाता नहीं
ना ही कोई थोड़ी सी हल्दी ला कर घाव पर
जोर से भीस के दबा देता है
लोग बस गुज़र जाते है पास से

वह चौराहे के पेड़ के नीचे बैठे ताऊ,
वह पड़ोस से चिल्ला कर आवाज़ लगाती मौसी,
वह नुक्कड़ की दूकान वाले चाचा,
वह सारे भैया; सब भौजाई;
यह सब कोई रिश्तो का बंधन नहीं यहाँ;
बड़ा आज़ाद है यह शहर;

कभी कभी अकेलापन लगता है यहाँ;
पर ज्यादातर इस शहर में भीड़ बहुत है।

- प्रियांक शाह

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