अपने चारो ओर बनाया था,
एक किल्ला रज़ाई का मैंने,
के कोई हवा के बम-गोले,
कोई सर्दी की गोलीबारी,
छु भी ना पाये मुझको,
रात भर जारी रही मुहीम हवा की,
कभी झोंका झोंका आकर,
कभी लहर लहर सी बन कर,
कभी आरस की वह फर्श को अपना
साथी बनाकर ठंड ठंड,
पर भेद सकी ना किल्ले को,
जब लग ही रहा था विजय है निश्चित,
सूरज की कुछ किरणों ने
बस झाँक ही लिया था,
के तभी अचानक मधुर से स्वर ने,
एक मुलायम हाथ ने आकर,
मुझे टटोला, मुझे जगाया,
और खुल गया वह अभेद्य किल्ला,
सर्द हवा ने मौका पाकर,
शीत-बाणों की जो छेड़ी है जंग,
कांपते हाथ को दबा बगल में,
ठिठुरते दांतों को भींचते हुए,
उसकी ओर मुस्कुराते हुए मैंने कहा,
घर का भेदी, लंका ढाये!!!
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