Monday, July 7, 2014

उम्मीद

एक उम्मीद नयी नयी मरीज़ है
समझ नहीं आ रहा क्या मर्ज़ है
चाह मर चुकी है उसकी जीने की
उसकी नब्ज़ में सुई चुभो के
वक़्त का कतरा कतरा चढ़ाकर
उसको जिंदा रखा है

शायद उसको बचा सके कुछ करके
बस कोई थोड़े सहारे की गोलियां
चंद मीठी बातों की बूटी
कूट पीस के घोल मिला कर
बहला फुसला कर उसे पीला दे
तो शायद उम्मीद कायम रहे

और ना भी बची तो क्या?
आये दिन ऐसी कितनी उम्मीद
दुनिया की भीड़ में कुचल पीस के,
लहुलुहान सी तड़प तड़प के
यूँही दम तोड़ देती है

तेज़ ज़िन्दगी में कहा किसीको
मातम मनाने का वक़्त मिले
उम्मीद की लाश को पीछे छोड़
लोग बढ़ जाते है हताश से आगे
पर अब जब इतने वक़्त के कतरे
इस उम्मीद पे जाया किये है
तो इस उम्मीद को मरने मत देना
जिंदा रखना इस उम्मीद को

2 comments:

  1. It's very gloomy... But nevertheless it is beautifully written...

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  2. सुन्दर प्रस्तुति !
    आज आपके ब्लॉग पर आकर काफी अच्छा लगा अप्पकी रचनाओ को पढ़कर , और एक अच्छे ब्लॉग फॉलो करने का अवसर मिला !

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